साहित्य में अनुवाद का महत्व - किशोर लालवाणी



 







साहित्य में अनुवाद का महत्व 

साहित्य की हर विधा फिर चाहे वह कविता हो, कहानी हो, उपन्यास हो या नाटक हो अपने आप में एक सृजन है। किसी एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में अनुवाद भी सृजन ही कहलाता है। अनुवाद एक रचनात्मक एवं सृजनात्मक कला है। 


साहित्यकारों ने अनुवाद की परिभाषा इस प्रकार बताई है,‘‘ किसी विचार या विषय को मूल भाषा के आवरण के स्थान पर किसी दूसरी भाषा में आवरण को अनुवाद या भाषांतर कहा जाता है।’’  अनुवाद भले ही रचना न हो पर इसे पुनर्रचना माना जा सकता है। अच्छे अनुवाद में मूल रचना के स्थान्नापन की क्षमता होती है। अतः अनुवाद को यदि साहित्य की एक विधा माना जाए तो इसमें कोई अतिशयाक्ति नहीं होगी। अनुवाद भी सृजन ही है। अनुवाद में केवल शरीर का आवरण ही नहीं देखा जाता अपितु शरीर के अंदर की आत्मा को भी यथावत् प्रस्तुत करना होता है। रचना का शिल्प या संरचना उसका शरीर है तो रचना के अंदर समाए हुए सूक्ष्म संदेश, विचार तथा संवेदनाएं उसकी आत्मा है।


हमारे देश में अनुवाद की परंपरा कोई अधिक पुरानी नहीं है। यहां किसी समय तक्षशिला, नालंदा और शांति निकेतन जैसे विश्वविद्यालय तो थे किंतु रोम और बगदाद की भांति ऐसा कोई केंद्र नहीं था जहां विदेशी भाषा में रचित ज्ञान विज्ञान के ग्रंथों का भाषांतर किया जाता हो। हमने साहित्यकारों को तो जन्म दिया है लेकिन अनुवादक पैदा न कर सके हैं। संभवतः यही कारण है कि हमारे देश के पाठक संसार में व्याप्त ज्ञान विज्ञान, साहित्य एवं ललित कलाओं से वंचित रहकर केवल आत्म दर्शन में ही लीन रहा।


अनुवाद के बारे में भी दो मत हैं। सामान्य धारणा के अनुसार कई साहित्यकार अनुवाद को सृजन ही नहीं मानते। मौलिक रचना का लेखक इसलिए सृजक माना जाता है क्यांेकि वह जो कुछ रचता है उसके ऊपर किसी भी रूप में किसी अन्य कृति का प्रभाव नहीं होता है चाहे प्रत्यक्ष रूप में या परोक्ष रूप में। हर भाषा की मूल विशेषताएं दूसरों से भिन्न होती हैं। हर भाषा का अपना व्याकरण और संस्कार होता है। अनुवाद के माध्यम से एक भाषा की रचना दूसरी भाषा को चोला पहनती है। 


अनुवाद करना इतना आसान नहीं है जितना हम समझते हैं। अनुवादक को अनेक बातों का ध्यान रखन पड़ता है। यह बात सही है कि अनुवाद में शत प्रतिशत पारदर्शिता नहीं आ सकती। अनुवादक पूर्ण निष्ठा के साथ अनुवाद करने के बावजूद भी यह महसूस करता है कि उसने अनुवाद करते समय अपने सामथ्र्य एवं योग्यता के अनुसार स्वतःस्फूर्त प्रयास करने के उपरांत भी उससे कहीं कोई कमी रह गई है। 


हर भाषा के शब्द भंडार में कतिपय शब्द और मुहावरे ऐसे होते हैं जो कई अन्य भाषाओं में उपलब्ध नहीं होते। अनुवाद करते समय यथावत् परिवर्तन नहीं किया तो नया या पुराना दोनों ही चोले बदसूरत लगेंगे। यहीं परीक्षा होती है कुशल अनुवादक के सृजनशीलता की। वह अपने विचारों से, सूझ बूझ से अनुवाद को सुंदर रूप देने का प्रयास करता है। अनुवादक की बौद्धिक क्षमता किसी रचनाकार की अपेक्षा कम नहीं आंकी जानी चाहिये। प्रतिभा की दृष्टि दे देखा जाए तो अनुवादक भी एक शिल्पकार है। अनुवादक को बहुत सोच समझकर एक शब्द या शब्द समूह के स्थान पर अन्य शब्द समूह का सहारा लेकर पाठकों तक मूल लेखक का अभिप्राय पहुंचाना पड़ता है वह भी रचना की आत्मा या मंतव्य से छेड़ छाड़ किये बिना।


अनुवादक की दोनों भाषाओं पर न केवल दक्षता अपितु उन पर नियंत्रण होना भी आवश्यक है। पारिस्थितिक व्यवहारिकता तथा तथ्यात्मकता के अभाव में समर्थ लेखकों की अन्यथा स्तरीय रचनाएं भी कई बार पाठकों को प्रभावित नहीं करत पातीं। उसी तरह साहित्य की जिस विधा का अनुवाद किया जाना है अनुवादक को उस विधा की तकनीकी बारीकियों का ज्ञान भी होना चाहिये।दोनों भाषाओं की निकट जानकारी के साथ अनुवादक को मूल रचना के विषय का संपूर्ण नहीं तो कम से कम इतना ज्ञान तो अवश्य होना चाहिये कि अनुवाद में तथ्यपरक विसंगतियों का समावेश न हो सके। किसी एक व्यक्ति का प्रत्येक विषय में पारंगत होना संभव नहीं है। जिस विषय की जानकारी कम या अधूरी है संबंधित विद्वानों से पुष्टि करने के बाद हा मूल रचना में उनका उल्लेख करना चाहिये। यदि मूल रचना में कोई त्रुटि हो गई हो तो अनुवादक का दायित्व और भी बढ़ जाता है। अपने सामान्य ज्ञान के आधार पर उसे चूक को पहचानकर अनुदित रचना मे याथोचित परिवर्तन करना होता है। इससे ज्ञात होता है कि अनुवाद एवं मौलिक लेखक की प्रकिया नदी के उत्कट प्रवाह को बांधते दो तटबंधों की तरह निरंतर भीगते रहने की अनुभूति जैसी है। पढ़ते समय जो रचना हृदय को स्पर्श कर जाती है और गहराई से डुबकी लगाने की प्रेरणा देती है उसे अनुदित करने की उत्कंठा का निश्चित् आकार ग्रहण करने में समय नहीं लगता है। जिस रचना ने दिल को छुआ है अनुवादक उसे अपनी पसंद की भाषा में अनुदित कर अनुदित भाषा के पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करता है। 


प्रत्येक रचना का एक निश्चित् पाठक वर्ग भी होता है। बच्चों के अलग अलग आयु वर्ग, शिक्षा का भिन्न भिन्न स्तर, व्यवसाय, नौकरी, शिक्षक समुदाय, गृहणियां एवं लेखक एक ही रचना को समझने, उसे हृदयंगम करने तथा उससे आनंदित होने की बौद्धिक स्थिति में नहीं होते। पाठक के जिस समूह के लिए सृजन हुआ है उसी के अनुरूप शैली, शब्द चयन तथा वाक्यों का विस्तार तय किया जाता है। अनुवादक के लिए महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक रचना की प्रकृति को पहचाने, रचना में पिरोए उन सरोकारों की पृष्ठभूमि में अनुवाद करे जो मूल लेखक के विचारों से संबद्ध रहे हैं। यहां पर विचार का अभिप्राय सार देना नहीं है। जिस प्रकार अनार का रस अनार नहीं होता इसी तरह मात्र सार देना अनुवाद नहीं कहलाता। 


मूल रचनाओं में कभी कभी ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जिसमें देखने तथा सुनने दोनों की प्रक्रिया समाई होती है। हालांकि कान और आंख दोनों पृथक पृथक इंद्रियां हैं। ऐसे समानार्थक शब्द खोज लाना बहुत ही कठिन है। यदि कोई अनुवादक इन शब्दों का ऐसा अनुवाद करेगा जो अनुवादित भाषा में हो ही नहीं तो उसका अनुवाद कृत्रिम, अनावश्यक पांडित्यपूर्ण, बेहूदा और बेजान लगता है।


शेक्सपीयर के शब्दों में,‘‘ नवजागृति के दौर की धड़कन स्वयं शब्दों में नही है अपितु अप्रकट रूप से उनके पीछे आभासित है। जैसे झीने रेशमी आवरण में किसी रूपवती का मुखड़ा।’’ 


शेक्सपीयर की रचनाओं में उस युग में व्याप्त पराक्रम एवं विजय की भावना तथा नव संसार के प्रति जिज्ञासा वृति परिलक्षित होती है। जिसे इस बात का ज्ञान नहीं है वह उसकी भाषा का रस नहीं ले पाएगा। शेक्सपीयर के कुछ मराठी अनुवादों में अंग्रजी मुहावरों को महत्व नहीं दिया गया है और वे अनुवाद मराठी वातावरण के अनुकूल होते हुए भी मूलगामी हैं। इसी प्रकार सफोकियस और मोलियर के कुछ कन्नड़ भाषा के अनुवादों में पात्रों के नामों का देशीकरण किया गया है तथा कथानकों को इस प्रकार परिवर्तित किया गया है कि उसकी अभिव्यक्ति कन्नड़ भाषी लोगों के लिए एकदम स्वाभाविक एवं बोधगम्य प्रतीत होती है। टाॅलस्टाय को यह शिकायत थी कि अनुवादकों ने उनकी रचनाओं को सही रूप में प्रस्तुत नहीं किया। प्रायः कई साहित्यकार जिनके जीवन काल में उनकी रचनाओं का अनुवाद हुआ है।


यह सोचना अनुचित है कि अनुवादकों की कोई महत्ता नहीं है या वह साहित्यकार नहीं केवल अनुवादक है। उच्चकोटि का अनुवाद एक साधारण अनुवादक के बलबूते के बाहर की बात है। अनुवाद का अभिप्राय यही है कि पाठक स्वयं को उनके बीच में पाकर एक विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त करता है। 


अनुवादक रचना के मूल उद्देश्य को पूर्ण निष्ठा के साथ अपने हृदय में रखता है। वह मूल रचना के प्रति कम वफादार नहीं होता। यदि मूल रचना के साहित्यिक सौंदर्य को कायम रखना है तो अनुवादक के लिए यह आवश्यक है कि वह ऐसी शैली विकसित करे जिससे लगे कि स्वयं लेखक ही अनुवादक की भाषा में लिख रहा है। इस प्रकार अनुवाद न केवल देश काल के अनुरूप होगा अपितु उसमें मूल रचना का कला सौंदर्य भी बना रहेगा। निस्संदेह कलात्मक अनुवाद ही सुंदर साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकते हैं। 

किशोर लालवाणी

सदस्य,सिंधी भाषा सलाहकार समिति, केेद्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली

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