नववर्ष 'सृष्टि संवत १९६०८५३१२६ कलि संवत ५१२७, विक्रम संवत २०८२













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सृष्टि संवत १९६०८५३१२६, कलि संवत ५१२७, विक्रम संवत २०८२, गुढी पाडवा एंव चैत्र नवरात्र' की हार्दिक शुभकामनाएं।


सृष्टि एवं कलि संवत :


शास्त्रों के अनुसार १९६०८५३१२६ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही ब्रह्मा जी ने ने इस सृष्टि की रचना की इसीलिए इसे सृष्टि संवत कहा जाता है। और महाभारत अनुसार ५१२७ वर्ष पूर्व इसी दिन अर्जुन के पौत्र परीक्षित का राज्य अभिषेक कर उसे महाभारत युद्ध के उपरांत कलियुग का प्रथम शासक बनाया था और इसे ही कलियुग का प्रारंभ माना जाता है।


विक्रम संवत :


विक्रम संवत कलि संवत के उपरांत सबसे प्राचीन संवत है। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक रखकर निश्चित किये गये है। किसी नवीन संवत को चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। 'विक्रम संवत' का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये, परंतु भारत का सर्वमान्य संवत 'विक्रम संवत' ही है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी है, वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्य पर स्थित है।


नव संवत्सर 'विक्रम संवत २०८२' का शुभारम्भ ३० मार्च, सन २०२५ को चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से है। पुराणों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण किया था जिसे सृष्टि संवत भी कहा जाता है, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है, क्योंकि इस ऋतु में चहुं ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं।


शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर "ओम् भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च" इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।' नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।


राष्ट्रीय संवत -


भारतवर्ष में इस समय देशी विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है, किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह 'विक्रम संवत' ही है। आज से लगभग २०८२ वर्ष यानी ५७ ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था।


नये संवत का प्रारंभ -


प्राचीन काल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से ऋण चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक ' नवरात्र ' का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्य तिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत की इन समस्त कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है।


  भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने ९५ शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी, जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धनवंतरी जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के ऋण से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के पश्चात् भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।


राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान -


पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल सृष्टि, कलि, विक्रम संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के अनुसार से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। 


विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।


गुढी पाडवा :


गुढी पाडवा 'हिन्दू नववर्ष' के रूप में पूरे भारत में मनाया जाता है। चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को "गुढी पाडवा" या "वर्ष प्रतिपदा" या "उगादि" (युगादि) कहा जाता है। इस दिन सूर्य , नीम की पत्तियाँ, अर्ध्य, पूरनपोली, श्रीखंड और ध्वजा पूजन का विशेष महत्त्व होता है। माना जाता है कि चैत्र माह से हिन्दूओं का नववर्ष आरंभ होता है। सूर्योपासना के साथ आरोग्य, समृद्धि और पवित्र आचरण की कामना की जाती है। गुढी पाडवा के दिन घर-घर में विजय के प्रतीक स्वरूप गुड़ी सजाई जाती है। उसे नवीन वस्त्राभूषण पहना कर शक्कर से बनी आकृतियों की माला पहनाई जाती है। पूरनपोली और श्रीखंड का नैवेद्य चढ़ा कर नवदुर्गा, श्रीरामचन्द्र एवं उनके भक्त हनुमानजी की विशेष आराधना की जाती है।


हिन्दू नववर्ष का प्रारम्भिक दिन -


'गुढी पाडवा' के अवसर पर लोग अपने घरों की साफ-सफाई करते हैं, द्वार पर रंगोली बनाते हैं और द्वार को आम की पत्तियों व गेंदे के फूलों से सजाते हैं। इस दिन घरों के आगे एक-एक 'गुढी' या ध्वजा रखी जाती है और उसके साथ स्वास्तिक चिह्न वाला एक बर्तन व रेशम का कपड़ा भी रखा जाता है। लोग पारम्परिक वस्त्र पहनते हैं। वैसे तो पौराणिक रूप से गुढी पाडवा का अलग महत्त्व है, लेकिन प्राकृतिक रूप से इसे समझा जाए तो सूर्य ही सृष्टि के पालनहार हैं। अत: उनके प्रचंड तेज को सहने की क्षमता पृथ्वीवासियों में उत्पन्न हो, ऐसी कामना के साथ सूर्य की अर्चना की जाती है। इस दिन 'सुंदरकांड', 'रामरक्षास्तोत्र' और 'देवी भगवती' के मंत्र जाप का विशेष महत्त्व है। हमारी भारतीय संस्कृति और ऋषियों-मुनियों ने 'गुढी पाडवा' अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से 'नववर्ष' का आरंभ माना है। 'गुढी पाडवा' पर्व धीरे-धीरे औपचारिक होती चली जा रही है, लेकिन इसका व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया है।


अर्थ तथा महत्त्व -


'गुढी' का अर्थ होता है- 'विजय पताका'। इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसी दिन से नया संवत्सर भी प्रारम्भ होता है। अत: इस तिथि को 'नवसंवत्सर' भी कहते हैं। ब्रह्मा जी ने सूर्योदय होने पर सबसे पहले चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को सृष्टि की संरचना प्रारंभ की। उन्होंने इस प्रतिपदा तिथि को 'प्रवरा' अथवा 'सर्वोत्तम तिथि' कहा था। इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। इस दिन से संवत्सर का पूजन, नवरात्र का घटस्थापन, ध्वजारोपण, वर्षेश का फल पाठ आदि विधि-विधान किए जाते हैं। चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। इस ऋतु में सम्पूर्ण सृष्टि में सुन्दर छटा बिखर जाती है।


मान्यताएँ -


हिन्दू धर्म में गुढी पाडवा को लेकर कई प्रकार की कथाएं हैं - 


जैसे-


पुराणों अनुसार चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप में अवतार लिया था। सूर्य में अग्नि और तेज हैं, चन्द्रमा में शीतलता। शान्ति और समृद्वि का प्रतीक सूर्य और चन्द्रमा के आधार पर ही सायन गणना की उत्पत्ति हुई है। इससे ऐसा सामंजस्य बैठ जाता है कि तिथि वृद्धि, तिथि क्षय, अधिक मास, क्षय मास आदि व्यवधान उत्पन्न नहीं कर पाते। तिथि घटे या बढ़े, लेकिन 'सूर्य ग्रहण' सदैव अमावस्या को होगा और 'चन्द्र ग्रहण' सदैव पूर्णिमा को ही होगा। यह भी मान्यता है कि ब्रह्माजी ने वर्ष प्रतिपदा के दिन ही सृष्टि की रचना की थी। विष्णु भगवान ने वर्ष तृतीया के दिन प्रथम जीव अवतार (मत्स्यावतार) लिया था।  शालिवाहन ने शकों पर विजय आज के ही दिन प्राप्त की थी। इसलिए 'शक संवत्सर' प्रारंभ हुआ।


मराठी भाषियों की एक मान्यता यह भी है कि मराठा साम्राज्य के अधिपति छत्रपति शिवाजी महाराज ने वर्ष प्रतिपदा के दिन ही 'हिन्दू पद पादशाही' का भगवा विजय ध्वज लगाकर हिन्दू साम्राज्य की नींव रखी थी।


चैत्र ही एक ऐसा महीना है, जिसमें वृक्ष तथा लताएँ फलते-फूलते हैं। शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। जीवन का मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करते है। इन्हें औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है। इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है।


कई लोगों की मान्यता है कि इसी दिवस भगवान राम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (गुढी) फहराए। आज भी घर के आँगन में गुढी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को 'गुढी पाडवा' नाम दिया गया। महाराष्ट्र में इस दिन पूरनपोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इसमें जो चीजें मिलाई जाती हैं, वे हैं- गुड़, नमक , नीम के फूल , इमली और कच्चा आम । गुड़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक होती है।


चैत्र या वासन्ती नवरात्र :


चैत्र या वासन्ती नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से होता है। चैत्र में आने वाले नवरात्र में अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान माना गया है। वैस चैत्र और शारदीय ये दोनों ही नवरात्र मनाए जाते हैं। फिर भी चैत्र नवरात्र को कुल देवी-देवताओं के पूजन की दृष्टि से विशेष मानते हैं। आज के भागमभाग के युग में अधिकाँश लोग अपने कुल देवी-देवताओं को भूलते जा रहे हैं। कुछ लोग समयाभाव के कारण भी पूजा-पाठ में कम ध्यान दे पाते हैं। जबकि इस ओर ध्यान देकर आने वाली अनजान मुसीबतों से बचा जा सकता है। ये कोई अन्धविश्वास नहीं अपितु शाश्वत सत्य है।

#थर्म

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